Friday, April 26, 2024
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अल्ला रक्खा ख़ाँ

अल्ला रक्खा ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Alla Rakha Khan, जन्म- 29 अप्रैल, 1919; मृत्यु- 3 फ़रवरी, 2000) सुविख्यात तबला वादक, भारत के सर्वश्रेष्ठ एकल और संगीत वादकों में से एक थे। इनका पूरा नाम पूरा नाम क़ुरैशी अल्ला रक्खा ख़ाँ है। अल्ला रक्खा ख़ाँ अपने को पंजाब घराने का मानते थे। अल्ला रक्खा ख़ाँ के पुत्र का नाम ज़ाकिर हुसैन है जो स्वयं प्रसिद्ध तबला वादक हैं।

आरंभिक जीवन

उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ का जन्म 29 अप्रैल, 1919 को भारत के जम्मू शहर के फगवाल नामक जगह पर हुआ था। आरंभ से ही अल्ला रक्खा को तबले की ध्वनि आकर्षित करती थी। बारह वर्ष की अल्प आयु में एक बार अपने चाचा के घर गुरदासपुर गये। वहीं से तबला सीखने के लिए घर छोड़ कर भाग गये। इस से यह पता चलता है कि आपके मन में तबला सीखने की कितनी ललक थी।[1]

संगीत की शिक्षा

अल्ला रक्खा ख़ाँ 12 वर्ष की उम्र से ही तबले के सुर और ताल में माहिर थे। अल्ला रक्खा ख़ाँ घर छोड़ कर उस समय के एक बहुत प्रसिद्ध कलाकार उस्ताद क़ादिर बक्श के पास चले गये। जैसे जौहरी हीरे की परख कर लेता है, वैसे ही उस्ताद क़ादिर बक्श भी आप के अंदर छुपे कलाकार को पहचान गये और आपको अपना शिष्य बना लिया। इस प्रकार आपकी तबले की तालीम विधिवत आरंभ हुई। इसी दौरान आपको गायकी सीखने का भी अवसर मिला। मियां क़ादिर बक्श के कहने पर आपको पटियाला घराने के मशहूर खयाल-गायक आशिक अली ख़ाँ ने रागदारी और आवाज़ लगाने के गुर सिखाये। ऐसा माना जाता था कि बिना गायकी सीखे संगीत की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं होती।

गुरु क़ादिर बक्श

बहरहाल, आप लगातार गुरु क़ादिर बक्श के निर्देशन में रियाज़ करते रहे। गुरु के आशीर्वाद और अपनी मेहनत और लगन से आप एक कुशल तबला वादक बन गये। शीघ्र ही आपका नाम सारे भारत में लोकप्रिय हो गया। संगीत जगत् में आपका तबला वादन एक चमत्कार से कम नहीं था। गुरु से आज्ञा पाकर आप तबले के प्रचार प्रसार में जुट गये। अपने वादन के चमत्कार से आपने बडी़-बड़ी संगीत की महफिलों में श्रोताओं का मन मोह लिया। सधे हुए हाथों से जब आप तबले पर थाप मारते थे तो श्रोता भाव विभोर हो जाते थे। दायें और बायें दोनों हाथों का संतुलित प्रयोग आपके तबला वादन की विशेषता थी।[

व्यवसायिक जीवन

अल्ला रक्खा ख़ाँ ने अपना व्यावसायिक जीवन एक संगीतकार के रूप में पंजाब में ही शुरू किया। बाद में 1940 ई. में आप आकाशवाणी के मुम्बई केंद्र पर स्टाफ़ आर्टिस्ट के रूप में नियुक्त हुए। यहां तबले के विषय में लोगों की धारणा थी कि यह केवल एक संगति वाद्य ही है। आपने इस धारणा को बदलने में बहुत योगदान किया।

सिनेमा जगत

आपने सन् 1945 से 1948 के बीच सिनेमा जगत् में भी अपनी किस्मत आज़मायी। दो-तीन फ़िल्मों के लिये संगीत देने के बाद ही आपका मन इस मायाजाल से हट गया। इस बीच आपने अनेक महान् संगीत कलाकारों के साथ संगत की। इनमें से कुछ नाम बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ, पंडित वसंत राय और पंडित रविशंकर के हैं।

पंडित रविशंकर की संगति

पंडित रविशंकर के साथ अल्ला रक्खा ख़ाँ जी का तबला और निखर कर सामने आया। इस श्रंखला में सन् 1967 ई. का मोन्टेनरि पोप फ़ेस्टिवल तथा सन् 1969 ई. का वुडस्टाक फ़ेस्टिवल बहुत लोकप्रिय हुए। इन प्रदर्शनों से आप की ख्याति और अधिक फैलने लगी। 1960 ई. तक आप सितार सम्राट पंडित रविशंकर के मुख्य संगतकार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। वास्तव में आप का तबला वादन इतना आकर्षक था कि जिसके साथ भी आप संगत करते, उसकी कला में भी चार चाँद लग जाते थे। आप कलाकार के मूड और शैली के अनुसार उसकी संगत करते थे। सिर्फ़ एक संगतकार के रूप में ही नहीं, अपितु एक स्वतंत्र तबला वादक के रूप में भी आपने बहुत नाम कमाया। भारत में भी और विदेशों में भी आपने तबले को एक स्वतंत्र वाद्य के रूप में प्रतिष्ठित किया।[1]

कुशल गुरु

एक प्रतिभा सम्पन्न कलाकार के साथ-साथ आप एक कुशल गुरु भी थे। आपने अनेक शिष्य तैयार किए जिन्होंने तबले को और अधिक लोकप्रिय करने में बहुत योगदान किया। आप के प्रमुख शिष्यों में निम्नलिखित के नाम उल्लेखनीय हैं:- आप के तीनों सुपुत्र – उस्ताद ज़ाकिर हुसैन खां, फ़ज़ल कुरैशी और तौफ़ीक कुरैशी के अतिरिक्त योगेश शम्सी, अनुराधा पाल, आदित्य कल्याणपुर, उदय रामदास भी इनके प्रमुख शिष्य रहे। आपके शिष्य प्यार से आपको अब्बा जी कहते थे। आप भी अपने शिष्यों से पुत्रवत प्यार करते थे। आपकी असीम शिष्य-परंपरा आपके ही पद-चिह्नों पर चल कर आपके कार्य को आगे बढ़ा रही है।[1]

सम्मान और पुरस्कार

  • संगीत के क्षेत्र में आपके योगदान को स्वीकार करते हुए भारत सरकार के द्वारा सन् 1977 ई. में आपको पद्मश्री के सम्मान से अलंकृत किया गया।
  • सन् 1982 ई. में संगीत नाटक अकादमी ने भी आपको जीवन पर्यंत संगीत सेवा के लिये अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया।

निधन

3 फ़रवरी, सन् 2000 को मुंबई में हृदय गति के रुक जाने से आपका निधन हो गया। उस से ठीक एक दिन पहले ही आपकी सुपुत्री का निधन हुआ था। लोगों का कहना है कि आप पुत्री के सदमे को सह नहीं पाए। आपके निधन से तबले का एक युग समाप्त हो गया। लेकिन आपके द्वारा रिकार्ड की गयी एलबमों और संगीत समारोहों में आप सदा जीवित रहेंगे। जब जब तबले के पंजाब घराने की चर्चा होगी, आपके नाम की चर्चा होगी। आपके शिष्यों द्वारा आपकी परंपरा सदैव आगे बढ़ती रहेगी।[1]

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